Sunday, September 1, 2013

वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३ के अंतर्गत मयूरपंख से निर्मित पिच्छी के प्रयोग को प्रतिबन्ध से मुक्त रखने हेतु याचिका

दिनांक: ३१ अगस्त २०१३

प्रति,
श्री वीएसपी सिंह,
संयुक्त निदेशक, राज्यसभा सचिवालय,
कमरा संख्या: १४२, संसदीय सौध,
नयी दिल्ली – ११०००१
समिति का ईमेल है : rsc-st@sansad.nic.in

सन्दर्भ: ३१ अगस्त २०१३ के समाचार-पत्र में राज्यसभा सचिवालय द्वारा प्रकाशित विज्ञप्ति   

विषय: वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३

आदरणीय मान्यवर,

विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और वन संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने देश के विभिन्न समाचार-पत्रों में प्रेस विज्ञप्ति प्रकाशित कर वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३ पर जनता के सुझाव और अभिमत, प्रतिक्रियाएं आमंत्रित किए जाने के संदर्भ मेंमैं सुझाव देता हूँ कि दिगंबर जैन साधुओं और साध्वियों द्वारा मयूर-पंख से निर्मित पिच्छी के उपयोग को उक्त विधेयक के प्रतिबंधों से पूर्णतः मुक्त रखा जाए एवं पिच्छी बनाने के लिए मयूर-पंख के प्रयोग को छूट दी जाए. 

जैनागम के अतिप्राचीन ग्रंथों में पिच्छी का महत्व बताते हुए कहा कि पिच्छी में मृदुता, सुकोमलता, अग्रहणता, तथा लघुता के गुण होते हैं। केन्द्र सरकार द्वारा पारित वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३ में मोर को कष्ट पहुँचाने एवं उसकी हत्या करने पर लगाया गया प्रतिबंध सर्वथा उचित है, परन्तु मोर द्वारा स्वाभाविक रूप से छोड़े गए पंखों पर प्रतिबंध लगाना कैसा न्याय है?

दिगंबर साधु की पहचान मोर पंख की पिच्छी है। पिच्छी मोर द्वारा अपने आप छोड़े गए पंखों से निर्मित की जाती है, मोरपंख को प्राप्त करने हेतु मोर को कोई कष्ट नहीं दिया जाता। दिगंबर साधु इसलिए मोर पंख का उपयोग करते हैं क्योंकि उसमें पाँच गुण हैं: मृदुता, कोमलता, निष्पृहता  अहिंसा और बाधा से रहित। मयूर पंख से निर्मित पिच्छी से दिगंबर मुनि सूक्ष्म और आँखों से दिखाई ना देने वाले जीवों की रक्षा करते हैं, जैनागम में इसे दिगंबर मुनियों के संयम का अनिवार्य उपकरण कहा गया है।  

सरकार द्वारा लाये गए इस अधिनियम से दिगंबर जैन मुनियों के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग जाएगा, अहिंसा के विरुद्ध पारित हुए कानून कभी सफल नहीं हो सकते इसलिए सरकार से अनुग्रह है कि दिगंबरत्व के प्रतीक पिच्छी, कमंडल जो अहिंसा के उपकरण हैं उसकी सुरक्षा के लिए पुनः विचार किया जाए।

संत शिरोमणि दिगंबर जैनाचार्य श्री १०८ विद्यासागरजी महाराज ने केन्द्र सरकार द्वारा पारित अधिनियम पर कहा कि जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के समय से लेकर अब तक जितने भी साधु-साध्वियाँ हुई हैं उन सभी को कमंडल के साथ पिच्छी रखना अनिवार्य है। जैन धर्म के प्राचीनतम ग्रंथ आचार्य श्री वट्टकेर द्वारा रचित मूलाचार एवं आचार्य श्री शिवकोटि रचित भगवती आराधना में भी उल्लेख है कि बिना पिच्छी के साधु सात कदम भी नहीं चल सकते। यह उनके समाधिमरण तक साथ रहती है। 

आचार्यश्री ने कहा कि केन्द्र सरकार का मयूर पिच्छी संबंधी प्रस्ताव दिगंबर जैन धर्म के साधुओं की आवश्यकताओं में बाधक है। सरकार को साधुओं की चर्या को ध्यान में रखते हुए जैन धर्म के हित में सकारात्मक निर्णय लेकर उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। साथ ही देश के राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री को जैन धर्म की अनिवार्यताओं का ध्यान रखते हुए तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए।

मयूर पिच्छी ही क्यों ?

सकल संयम के धारी नवकोटि {समरंभ, समारंभ, आरम्भ, मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना} से सकल पापों के त्यागी, करुणानिधान, ज्ञानध्यान तप में लीन आत्मध्यानी दिगंबर जैन मुनिराज जब आत्मध्यान से बाहर आते हैं तो उन्हें भी २८ मूल गुण रूप शुभ भाव एवं शुभाचार होता है। उसमें  स्वाध्याय, सामायिक, आहार, विहार, निहार, शयनादि रूप प्रवृत्ति भी स्वभाविक रूप से होती ही है।।

अतः यदि ये क्रियाएं विवेक और सावधानी पूर्वक संपन्न नहीं की जावेगी तो इनमें  जीव हिंसा अवश्य ही होती है। संयम मुनिधर्म का प्राण है, अतः मुनिधर्म के पालन हेतु मुनिराज का अभिप्राय, परिणाम एवं प्रवृत्ति ऐसी होती है कि वे एकेंद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत सभी जीवों की द्रव्य व भाव हिंसा में निमित्त भी नहीं बनते। 

अतः जिन प्रवृत्तियों में हिंसा संभव है उनसे स्वयं बचने के लिए आवश्यक है कि उनके संयम का उपकरण [अर्थात पिच्छी] ऐसा होना चाहिए जिससे किसी भी प्रकार से किसी भी जीव की हिंसा नहीं हो अथवा सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की रक्षा हो, उसे कष्ट ना पहुँचे ।

मुनिधर्म के प्ररूपक जैन ग्रन्थ श्री मूलाचार एवं आराधना आदि ग्रंथों में सर्वगुण सम्पन्न एवं सर्व दोष रहित पिच्छी के स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि --"हे मुने! तुम्हारे संयम की रक्षा करने वाला संयम का उपकरण प्रतिलेखन [पिच्छी] है । वह शोधनोपकरण पिच्छिका तुम्हारे पास प्रति समय (अर्थात सदैव) रहना चाहिए।"

दिगंबर जैन मुनि की प्रतिज्ञा सभी जीवों पर दया करना एवं उनकी रक्षा करना है, इसलिए पिच्छी उसकी पहचान है यह मनुष्यों और पशु-पक्षियों को भी  विश्वास दिलाती है कि जो दिगंबर मुनिराज सूक्ष्म जीवों की रक्षा के लिए इतने सजग एवं करुणावान हैं वे अन्य जीवों के प्रति भी उतने की करुणामय होते हैं। 

जिसमें निम्नलिखित पांच गुण पाए जाएँ वही प्रतिलेखन प्रशंसनीय माना जाता है:
१-     रजो-अग्रहण (धूल को ग्रहण ना करना);
२-     स्वेद-अग्रहण (पसीने को ग्रहण ना करना);
३-     मृदुता (कोमलता);
४-     सुकुमारता (सुंदरता);
५-     लघुता (कम भार)।

रजो-अग्रहण गुण   :-
मुनिराज के ज्ञान का उपकरण शास्त्र है उन्हें सुरक्षित रखने के लिए अलमारी, अछावर आदि साधन परिग्रह होने से मुनिराज उन्हें नहीं रखते अतः शास्त्र खुले स्थान में उच्च स्थान में रखे रहते हैं जिससे उनपर धूल आदि चढ़ जाती है और साथ ही सूक्ष्म जीव भी उसमें छिप जाते हैं या चिपक जाते हैं। अतः स्वध्याय हेतु मुनिराज जब भी शास्त्र का उपयोग करते हैं तो नेत्रों से भली-भांति देखकर एवं पिच्छी से सावधानी से परिमार्जन करते हैं । 

जिस स्थान या बसतिका में निवास करते हैं तथा जिस काष्ठासन आदि पर बैठते हैं वे भी खुले स्थान में होते हैं, उन पर भी सूक्ष्म तथा स्थूल जीव चढ़ जाते हैं अतः उन पर बैठने, उठने, शयन करने में, हाथ पैर फैलाने, सुकोड़ने, करवट आदि बदलने के पहले उन स्थानों, आसनों एवं शरीर को पिच्छी से परिमार्जित अर्थात साफ़ करते हैं।

दिगंबर जैन मुनि जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के बाद से आजीवन पग-विहार ही करते हैं, किसी भी प्रकार का वाहन कभी भी नहीं करते, वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पैदल विहार में गमनादि करते समय चार हाथ आगे की भूमि देखकर मध्यम गति से तो गमन करते ही हैं परन्तु जिस भूमि पर गमन करते हैं, उस भूमि की मिट्टी के कण मुनिराज के शरीर पर लग जाते हैं, साथ में एक तरह की मिट्टी में जो सूक्ष्म जीव रहते हैं वे जीव दूसरी तरह की मिट्टी  में जीवित नहीं रह पाते हैं।अतः जब मुनिराज विहार करते हुए एक तरह की मिट्टी वाली भूमि से दूसरी तरह की मिट्टी  वाली भूमि में गमन के पूर्व वहीं खड़े होकर शरीर का पिच्छी से परिमार्जन करते हैं ।

इसी प्रकार छाया से धूप में तथा धूप से छाया वाले छेत्र में विहार के पूर्व ही खड़े होकर शरीर  का परिमार्जन करते हैं। यदि ऐसा न करेंगे तो धूप के जंतु छाया के संसर्ग से तथा छाया के जंतु धूप के संसर्ग से मर जाएँगे और इस अविवेक का दोष मुनिराज को लगेगा तो ईर्या समिति निर्दोष नहीं पल पायेगी।

जिस प्रकार शास्त्र, आसन, बस्तिका की धूल का परिमार्जन करते हैं वैसे ही शौच का उपकरण कमंडलु है उस पर भी धूल आदि चढ़ जाती है अतः उसे भी उपयोग करने के पूर्व उसका परिमार्जन करते जिससे आदान-निक्षेपण समिति भली – भांति पल जाती है।

मुनिराज जिस स्थान पर मल-मूत्र-थूक आदि क्षेपण करते हैं वह स्थान प्रासुक, शुष्क एवं जीव जंतुओं से रहित होना चाहिए, फिर भी नेत्रों से भली-भांति देखने पर भी धूल आदि में सूक्ष्म जीवों की सम्भावना हो सकती है अतः उक्त कार्य करने के पूर्व उस स्थान का पिच्छी से परिमार्जन करते हैं अतः प्रतिष्ठापन समिति निर्दोष पल जाती है। 

उपर्युक्त सभी क्रियाओं अथवा गतिविधियों को करने में धूल आदि का जिस पिच्छी से परिमार्जन  किया जा रहा है उसमें  ऐसा गुण होना चाहिए कि वह धूल से मैली नहीं होना चाहिए, यदि धूल से मैली होने वाली हो तो उसमें जीवों की उत्पत्ति होने लगेगी और वह हिंसा का आयतन बन जाएगी । ऐसा होने पर अहिंसा महाव्रत खंडित हो जाने से मुनि धर्म ही नष्ट हो जायेगा, परन्तु  मयूर पिच्छी ऐसी होती है कि उससे कितनी भी धूल का परिमार्जन किया जाये वह किंचित मात्र भी मैली नहीं होती अतः रजो अग्रहण गुण की धारक मयूर पिच्छिका ही होती है । 

स्वेद अग्रहण गुण :-  
एक स्थान से दूसरे स्थान की और पैदल विहार करते समय मुनिराज के शरीर से पसीना आना तथा उस पर धूल आदि लग जाना स्वाभाविक ही है, अतः मुनिराज जब धूप से छाया में और छाया से धूप में गमन करते हैं तो पिच्छी से शरीर का परिमार्जन करते हैं, ताकि धूप तथा छाया के सूक्ष्म जीव जो शरीर पर लग गए वे अन्यत्र वातावरण में पहुंचकर मर ना जाएँ, अतः पसीना के परिमार्जन से पिच्छी गीली न हो, ऐसा गुण पिच्छी में होना चाहिए, यदि पसीने से पिच्छी गीली हो जाए तो उसमें धूल आदि के संपर्क में आने से सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाएगी तब फिर वही पिच्छी हिंसा का आयतन बन जाने से अहिंसा महाव्रत के पालन के सर्वथा अयोग्य हो जाएगी । तब  फिर पुनः पुनः नवीन पिच्छी की आवश्यकता पड़ेगी और सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी मुनिराज के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकेगी, अतः महाव्रत खंडित होने से मुनि धर्म नष्ट हो जाएगा ।

परन्तु मयूरपंख से बनी पिच्छी में ऐसा गुण है कि पसीने से वह बिलकुल गीली नहीं होती तथा धूल आदि को भी ग्रहण नहीं करती। अतः पुनः -पुनः धूल एवं पसीने का परिमार्जन करने पर भी उसमें जीवों की उत्पत्ति नहीं होती, अतः अहिंसा महाव्रत सहज ही पल जाता है। अतः स्वेद अग्रहण स्वभाव वाली होने से मयूर पिच्छी ही मुनि धर्म पालन में सहायक है।

मृदुता गुण :-  
एक -दो इन्द्रिय आदि जीवों का शरीर  इतना सुकोमल होता है कि यदि किसी कठोर पिच्छी से परिमार्जन  किया जायेगा तो उनका मरण हो जाने से अहिंसा महाव्रत नष्ट हो जायेगा , अतः पिच्छी ऐसी   होनी चाहिए कि सुकोमल तथा सूक्छ्म अवगाहना वाले जीवों को भी परिमार्जन  के काल में कोई कष्ट न हो और न ही उनकी द्रव्य या भाव प्राणों कि हिंसा हो ।
मयूर पिच्छी इतनी कोमल होती है कि कि उसका अग्र भाग आँख में चले जाने पर भी आँख को कोई कष्ट नहीं होता, अतः मृदुता अर्थात कोमलता गुण कि धारी मयूर पिच्छी ही सर्व प्रकार के सर्व जीवों को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचाने में समर्थ होने से अहिंसा महाव्रत के पालन के लिए सर्वदा एवं सर्वत्र उपयुक्त है तथा उपादेय है । 

सुकुमारता /प्रियदर्शनीयता गुण:-
उपरोक्त गुणों के साथ पिच्छी में नेत्रों को मनोहर लगने वाला प्रियदर्शनीय गुण भी आवश्यक है । क्योंकि जो श्रावक भक्त आदि उनके निकट आते हैं उन्हें यह संयम का उपकरण प्रिय लगे और भोले जीव भी उससे आकर्षित होकर मुनिराज के निकट आवे यह गुण मयूर पिच्छी में स्वभावतः ही है। 

लघुता गुण :- 
मुनिराज को अपनी प्रत्येक क्रिया के समय पिच्छी की आवश्यकता होती है अतः मुनि दीक्षा अंगीकार करते समय से ही पिच्छी को जीवन पर्यंत साथ रखना अनिवार्य होता है। इसके लिए आवश्यक है कि पिच्छी इतनी हल्की होनी चाहिए कि उसे बाल, वृद्ध, रोगी, क्लांत, समाधि साधक, जीर्ण शरीर एवं बल वाले सभी मुनिराज आसानी से उसे उठाकर अपना परिमार्जन कार्य कर सकें। साथ ही यदि पिच्छी के नीचे कोई जीव दब जावे तो उसके वजन से उसको कोई कष्ट न हो, इस दृष्टि से भी देखा जाए तो मयूर पिच्छी इतनी हल्की होती है कि जिससे सूक्ष्म जंतु के शरीर को भी किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचती तथा अत्यंत वृद्ध एवं अशक्त मुनिराज को भी उसे उठाने में कष्ट नहीं होता तथा उनके शरीर का परिमार्जन करने पर भी उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।

इस प्रकार प्रतिलेखन अर्थात पिच्छी के सम्पूर्ण गुण जैसे रजोअग्रहण, स्वेदअग्रहण, मृदुता [कोमलता], प्रियदर्शनीयता और लघुता गुण से परिपूर्ण मात्र मयूरपंख से निर्मित पिच्छी ही होती है, जिसके द्वारा जीव हिंसा किसी भी प्रकार नहीं होती अतः महाव्रतों के धारी मुनिराज के संयम धर्म के पालन में यही मयूर पिच्छी अनिवार्य है। 

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए एवं दिगंबर मुनियों की सहस्राब्दियों पुरातन परम्परा का ध्यान रखते हुए हम समिति से विनम्र अनुरोध करते हैं कि दिगंबर मुनियों द्वारा प्रयोग की जाने वाली पिच्छिका बनाने के मयूरपंख के इस्तेमाल को वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३ के प्रावधानों से मुक्त रखा जाए ताकि विश्व के सर्वाधिक प्राचीनतम जैन धर्म की दिगम्बर मुनि परंपरा अक्षुण्ण बनी रहे।

हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि भारत सरकार दिगम्बर मुनियों के प्रति सम्मान भाव रखते हुए पिच्छी निर्माण के लिए मयूरपंख के उपयोग को प्रतिबंधों से अलग रखेगी और उक्त अधिनियम को अधिसूचित करने से पहले आवश्यक संशोधन किया जाएगा ।

धन्यवाद सहित,


भवनिष्ठ,

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ईमेल: 

1 comment:

  1. Krupaya ise thik kar lein : Shree Mulacharji Aur Shree Bhagvati Aaradhnaji ki mul-gathaon mein Mayur-Pankh Ki Picchi aisa pad nahin hai.

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