Tuesday, May 3, 2016

रेलवे पहले जैसा नहीं रहा


रेलवे पहले जैसा नहीं रहासबकुछ बदल रहा है। रेल मंत्री सुरेश प्रभु अपनी रेल को कुछ इसी तरह बदल रहे हैंजिसमें रेल सेवा पर कम ... आमदनी बढ़ाने पर अधिक ध्यान है। टिकट रद्द करने का शुल्क दो से तीन गुना बढ़ाने से लेकर बच्चों का पूरा किराया वसूलने तक के सरफरनामे की तस्वीर सामने आ गई है।  आरक्षण चार्ट जारी करने की प्रणाली को भी बदल दिया है। लेकिनयात्री सुविधाएं बढ़ाने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं । न तो त्वरित खिड़की खोलने में तत्परता और न ही बिना टिकट ट्रेन में चढऩे वालों को टीटीई द्वारा टिकट दिए जाने की व्यवस्था की गई। केवल कारोबार बढ़ाने वाले परिवर्तिन को ही जल्दी-जल्दी लागू किया जा रहा है।

रेलवे के इस बदलाव को आमदनी बढ़ाने के रूप में देखा जा रहा है। उन सभी तरीकों को आजमाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई हैजिससे सीधे तौर पर रेलवे के कोष में बढ़ोतरी हो सके। वहीं यात्री सुविधा के लिहाज से रेल बजट में जो घोषणाएं की गई थीउन पर अमल करने पर रुचि नहीं दिखाई जा रही है।

चाहे महिला डिब्बों में सीसीटीवी कैमरा लगाने की बात हो या फिर पीने के लिए शुद्ध पानी के आरओ लगाने की।

टिकट रद्दकरण से जेब कटौती
पहले : कोई भी ट्रेन छूटने के बाद टिकट रद्द कराने पर आधी रकम वापस की जाती थी। जबकि चार घंटा पहले तक २५ प्रतिशत रद्दकरण शुल्क काटा जाता था।
अब : एसी से लेकर शयनयान तक आरक्षण रद्द कराने का शुल्क दो से तीन गुना काटा जा रहा हैा यहां तक गाड़ी छूटने के चार घंटा पहले टिकट रद्द कराने पर कोई भी पैसा वापस नहीं मिलेगा।

आरक्षण  चार्ट जारी करने का खेल

पहले : गाड़ी छूटने के दो से तीन घंटा पहले आरक्षण चार्ट जारी होता था। तब तक यदि कोई यात्री अपना टिकट रद्द कराता था तो दूसरे को सीट मिल जाती थी। अब सब कुछ टीटीई के भरोसे।

अब : संबंधित स्टेशन से गाड़ी छूटने के से घंटा पहले चार्ट जारी कर दिया जाता है। चार घंटे का समय बचने की स्थिति में टिकट रद्द कराने में पूरा किराया डूब जाता है। रद्द होने वाले टिकट की जगह करंट काउंटर से टिकट देने की प्रक्रिया का प्रचार-प्रसार भी नहीं किया जा रहा है।

नहीं मिली ये सहूलितें

01 टिकट रद्दकरण  नियम बदलने के साथ त्वरित खिड़की की व्यवस्था को अलग से शुरू करना थाअब तक नहीं किया। ऐसी स्थिति में यात्रियों को जल्दबाजी की स्थिति में भी अन्य यात्रियों के टिकट खिडकियों पर धक्के खाने पड़ते हैं।

02 महिला यात्रियों के सुरक्षित सफर के लिए डिब्बों में सीसीटीटी कैमरे लगाने की बात थीकिसी भी गाड़ी में नहीं लगा।
03 यात्रियों को स्वच्छ वातावरण और शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने का दावा किया। इसके तहत ट्रेन के डिब्बों में आरओ लगाना थाजो आज तक किसी भी गाड़ी में नहीं लगा।
04 टिकट खिड़की पर यात्रियों को लंबा इंतजार न करना पड़ेगा। ट्रेन का टिकट ट्रेन में मिलने की बात कही गईलेकिन किसी भी गाड़ी में यह सुविधा यात्रियों को नहीं मिली। टीटीई को हस्तचालित मशीन उपलब्ध करवानीजिसका पता नहीं है।

सारनाथ में एकमुश्त वसूली

पहले : दुर्ग स्टेशन से चलने वाली सारनाथ एक्सप्रेस में अंतिम स्टेशन तक किराया नहीं वसूला जाता था। किसी भी स्टेशन से निर्धारित कोटा के अनुसार पक्का (कन्फर्म)टिकट मिल जाता था।

अब : इस गाड़ी में दुर्ग से छपरा तक सीट उपलब्धता (कोटा) सीधे दोगुना बढ़ा दी है। रायपुर स्टेशन से टिकट लेने पर प्रतीक्षासूची और दुर्ग से छपरा तक टिकट कन्फर्म। बनारसइलाहाबाद जाने वाले यात्रियों से छपरा स्टेशन तक एक मुश्त किराया वसूली।

जनशताब्दी पर मार

पहले: जनशताब्दी ट्रेनों में साधारण टिकट पर सफर करने की सुविधा थीउसे बंद किया जा रहा है।

अब : इस ट्रेन के यात्रियों से आरक्षण शुल्क वसूला जाएगा। यह व्यवस्था अगले महीने से लागू हो जाएगी।

से 12 साल के बच्चे का पूरा किराया
पहले: रेलवे में से 12 वर्ष के बच्चों का टिकट आधा लगता था और सीट पूरी मिलती थी।

अब : अप्रेल से पूरा किराया वसूलने का फरमान जारी कर दिया गया है। अब बच्चों के साथ सफर करना हर यात्री को महंगा पड़ेगा। अपने बराबर किराया बच्चों का भी देना होगा।

प्लेटफार्म टिकट रु. से 10 रुपए
स्टेशनों पर भीड़ कम करने के झूठे बहाने से पिछले एक साल में प्लेटफार्म टिकट 3 रु. से 10रु  पहुँच गया है

न्यूनतम किराया रु. से 10 रुपए
पहले : छोटे और कम दूरी वाले स्टेशनों का किराया ५ रुपए ।
अब : लोकल ट्रेन में सफर करने पर कम से कम दूरी वाले स्टेशन का किराया सीधे बढ़ाकर दोगुना 10 रुपए किया।



सौजन्य patrika.com रायपुर से केपी शुक्ल 

रेलवे के अग्रिम आरक्षण को लेकर कई सुझाव

वाराणसी से इन्द्रभूषण दुबे

रेलवे के अग्रिम आरक्षण को लेकर कई सुझाव आये हैं। इसमें निर्धारित समय सीमा को कम करने का सुझाव ज्यादा है। टिकट रद्द  कराते समय शुल्क कटौती को कम करने के लिए पत्र लिखा है। सभी सुझाव व पत्र को रेलवे बोर्ड व मंत्रालय  को भेज दिया गया है। -अजीत सिन्हावरिष्ठ डीसीएम उरे।

अग्रिम आरक्षण के समय को 120 दिन से कम कर 30 दिन करने की मांग रेल मंत्रालय से की है। इसके लिए यात्रियों ने मंडल स्तरमहाप्रबंधक और रेलवे बोर्ड के साथ मंत्रालय  को पत्र लिखा है। भेलूपुर के रमेश कुमार ने कहा कि रेलवे अग्रिम आरक्षण  के समय को कम कर 30 दिन करें ताकि यात्रियों पर आर्थिक बोझ न पड़े।

अग्रिम आरक्षण मुद्दे पर सोशल साइट पर अभियान भी शुरू हो गया।  change.org नामक वेबसाइट पर विधि जैन नामक युवती ने इस नियम को आर्थिक दोहन वाला बताया। अब तक ऑनलाइन याचिका से40 हजार लोग जुड़ चुके हैं। सोशल साइट पर अग्रिम आरक्षण  की समय सीमा 120 दिन की जगह 30दिन व रद्द कराने पर शुल्क को वापस लिया जाये।
अग्रिम आरक्षण के समय में बदलाव के लिए अब आवाज उठने लगी है।

इसके लिए जनता ने रेल मंत्रालय और अधिकारियों को पत्र भी लिखना शुरू कर दिया है। उम्मीद की जा रही है कि आगामी बजट में रेलमंत्री इस संबंध में नई घोषणा कर सकते हैं।

ये हैं नियम: भारतीय रेलवे ने पहले अग्रिम आरक्षण  का नियम 60 दिन का बनाया था। बीते साल नवम्बर में इसमें बदलाव करते हुए इसकी समय सीमा बढ़ाकर 120 दिन यानी चार महीना कर दिया।

आरक्षण  रद्द  कराने में कट रही दो गुनी से अधिक रकम:आरक्षण  रद्द  कराने का निर्धारित शुल्क दो गुना कर दिया। पहले किसी भी ट्रेन के छूटने के बाद टिकट रद्द  कराने पर आधा पैसा वापस होता था। वहीं चार घंटे पहले तक यह शुल्क 25 प्रतिशत था पर नये नियम के अनुसार सभी श्रेणियों के टिकट रद्द  कराने पर दो से तीन गुनी रकम काट ली जा रही है। यहां तक ट्रेन छूटने के चार घंटे पहले टिकट रद्द  कराने पर पैसा वापस नहीं होता है।



कमाई का जरिया बना: रेलवे के इन दोनों नियमों से यात्री काफी परेशान हो रहे हैं। उनका आर्थिक दोहन भी हो रहा है। लंका निवासी प्रशांत त्रिपाठी ने बताया कि रेलवे ने ये नियम अपनी कमाई के लिए बनाये हैं। अगर संभावना पर आरक्षण  करा भी लिया जाये तो इसकी गारंटी नहीं है कि यात्र की जायेगी। 90प्रतिशत मामले में टिकट कैंसिल ही कराना पड़ता है। इससे अच्छी कमाई होती है।

Tuesday, February 16, 2016

अग्रिम रेल आरक्षण में बदलाव के लिए उठने लगी माँग

http://epaper.livehindustan.com/epaper/UP/Varanasi/2016-2-15/70/Page-12.html

अग्रिम आरक्षण का समय 30 दिन हो: वाराणसी से इन्द्रभूषण दुबे

रेलवे के अग्रिम आरक्षण को लेकर कई सुझाव आये हैं। इसमें निर्धारित समय सीमा को कम करने का सुझाव ज्यादा है। टिकट रद्द  कराते समय शुल्क कटौती को कम करने के लिए पत्र लिखा है। सभी सुझाव व पत्र को रेलवे बोर्ड व मंत्रालय  को भेज दिया गया है। -अजीत सिन्हा, वरिष्ठ डीसीएम उरे।

अग्रिम आरक्षण के समय को 120 दिन से कम कर 30 दिन करने की मांग रेल मंत्रालय से की है। इसके लिए यात्रियों ने मंडल स्तर, महाप्रबंधक और रेलवे बोर्ड के साथ मंत्रालय  को पत्र लिखा है। भेलूपुर के रमेश कुमार ने कहा कि रेलवे अग्रिम आरक्षण  के समय को कम कर 30 दिन करें ताकि यात्रियों पर आर्थिक बोझ न पड़े।

अग्रिम आरक्षण मुद्दे पर सोशल साइट पर अभियान भी शुरू हो गया।  change.org नामक वेबसाइट पर विधि जैन नामक युवती ने इस नियम को आर्थिक दोहन वाला बताया। अब तक ऑनलाइन याचिका से 40 हजार लोग जुड़ चुके हैं। सोशल साइट पर अग्रिम आरक्षण  की समय सीमा 120 दिन की जगह 30 दिन व रद्द कराने पर शुल्क को वापस लिया जाये।
अग्रिम आरक्षण के समय में बदलाव के लिए अब आवाज उठने लगी है।

इसके लिए जनता ने रेल मंत्रालय और अधिकारियों को पत्र भी लिखना शुरू कर दिया है। उम्मीद की जा रही है कि आगामी बजट में रेलमंत्री इस संबंध में नई घोषणा कर सकते हैं।

ये हैं नियम: भारतीय रेलवे ने पहले अग्रिम आरक्षण  का नियम 60 दिन का बनाया था। बीते साल नवम्बर में इसमें बदलाव करते हुए इसकी समय सीमा बढ़ाकर 120 दिन यानी चार महीना कर दिया।

आरक्षण  रद्द  कराने में कट रही दो गुनी से अधिक रकम:आरक्षण  रद्द  कराने का निर्धारित शुल्क दो गुना कर दिया। पहले किसी भी ट्रेन के छूटने के बाद टिकट रद्द  कराने पर आधा पैसा वापस होता था। वहीं चार घंटे पहले तक यह शुल्क 25 प्रतिशत था पर नये नियम के अनुसार सभी श्रेणियों के टिकट रद्द  कराने पर दो से तीन गुनी रकम काट ली जा रही है। यहां तक ट्रेन छूटने के चार घंटे पहले टिकट रद्द  कराने पर पैसा वापस नहीं होता है।

कमाई का जरिया बना: रेलवे के इन दोनों नियमों से यात्री काफी परेशान हो रहे हैं। उनका आर्थिक दोहन भी हो रहा है। लंका निवासी प्रशांत त्रिपाठी ने बताया कि रेलवे ने ये नियम अपनी कमाई के लिए बनाये हैं। अगर संभावना पर आरक्षण  करा भी लिया जाये तो इसकी गारंटी नहीं है कि यात्र की जायेगी। 90 प्रतिशत मामले में टिकट कैंसिल ही कराना पड़ता है। इससे अच्छी कमाई होती है।

Wednesday, September 4, 2013

Memorandum on Vanya Jiva Sanrakshan Sanshodhan Vidheyak 2013

Date:

To,
Mr VSP Singh
Joint Director
Rajya Sabha Secretariat, Room No. 142, First Floor,
Sansadeeya Saudh, New Delhi 110001
समिति का ईमेल है : rsc-st@sansad.nic.in

Subject: Notice published in newspapers on 31/08/2013 by the Rajya Sabha Sachivalaya
Ref: Memorandum on Vanya Jiva Sanrakshan Sanshodhan Vidheyak 2013
Dear Sir,

The permanent committee on science and technology, environment and forests has published a press note in various newspapers in the country inviting the views and suggestions of the general public regarding the Vanya Jiva Sanrakshan Sanshodhan Vidheyak 2013.

I request you to permit Digambara Jain monks and nuns to continue using a whisk made of peacock feathers as they have been doing for the past 2500 years.  Also, kindly permit the use of peacock feathers for the express purpose of being used in the whisk carried by Digambara Jain ascetics.

I am in agreement with the act under consideration of the Govt. of India that peacocks should not be harmed or injured in order to get their feathers. Peacocks should most certainly not be murdered for their feathers. However, the proposed ban on using peacock feathers which have naturally fallen down on their own, is irrational. Peacocks naturally shed feathers. There is no harm in using them. But of course, killing peacocks for their feathers is completely unacceptable. 
As Jains we believe in the nonviolence and would never condone any act of violence in the name of religion.

In fact, Digambara Jain ascetics use whisks made of peacock feathers because peacock feathers are dust-resistant have the qualities of softness, gentleness, non-stickiness and non-abrasiveness. Hence, Jain ascetics use them to gently remove insects from their path in order to ensure that even the tiniest creatures, even those that are not visible to the naked eye, are not hurt by their passing.  
Jain ascetics take the vow of non-violence, gentleness and kindness. They have compassion for all living beings in the world. They try to protect the lives of the tiniest of creatures and ensure that their own acts of mind, speech and body do not hurt of harm any living being.
The whisk made of peacock feathers conveys to all living beings that the bearers, Jain ascetics, shall not cause harm to any living beings. As per the Jain teachings, Digambara Jain monks and nuns have to always carry their whisks made of peacock feathers. It is a part of their initiatory vows.  
The oldest Jain texts, the 'Mulacara' of Acarya Vattakera and the 'Bhagavati Aradhana' of Acarya Shivakoti specify that a Digambara ascetic should not even walk 7 steps without carrying the peacock feather whisk. It remains with them even at the time of death by samadhi. 
Hence, a rule that uniformly bans the use of whisks made of peacock feathers by Digambara Jain ascetics shall obstruct their observance of vows. It is desirable that the govt. respects the sacred duty of Jain monks to carry a whisk made of peacock feathers.

Jain monks have to follow guidelines laid down by ancient scriptures which stipulate that they use peacock-feather whisks in order to fully observe their vow of nonviolence. Using whisks made of any other material would be less effective as no other material can match the softness, gentleness and non-abrasiveness of peacock feathers.

Ancient Jain scriptures lay down the qualities of an ideal whisk. 
1. It should be dust-resistant
2. It should be sweat-resistant
3. It should be soft
4. It should be gentle
5. It should be light
Only a whisk made of peacock feathers fulfills the above criteria.

I have great confidence in the Govt. of India and I am sure that it will exempt the use of peacock feathers in a whisk from the new Act.

Thanking you,
Yours Faithfully,


................................
sign above

Name:
Address:
Cell No./ Phone No.:
Email:

Sunday, September 1, 2013

वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३ के अंतर्गत मयूरपंख से निर्मित पिच्छी के प्रयोग को प्रतिबन्ध से मुक्त रखने हेतु याचिका

दिनांक: ३१ अगस्त २०१३

प्रति,
श्री वीएसपी सिंह,
संयुक्त निदेशक, राज्यसभा सचिवालय,
कमरा संख्या: १४२, संसदीय सौध,
नयी दिल्ली – ११०००१
समिति का ईमेल है : rsc-st@sansad.nic.in

सन्दर्भ: ३१ अगस्त २०१३ के समाचार-पत्र में राज्यसभा सचिवालय द्वारा प्रकाशित विज्ञप्ति   

विषय: वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३

आदरणीय मान्यवर,

विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और वन संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने देश के विभिन्न समाचार-पत्रों में प्रेस विज्ञप्ति प्रकाशित कर वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३ पर जनता के सुझाव और अभिमत, प्रतिक्रियाएं आमंत्रित किए जाने के संदर्भ मेंमैं सुझाव देता हूँ कि दिगंबर जैन साधुओं और साध्वियों द्वारा मयूर-पंख से निर्मित पिच्छी के उपयोग को उक्त विधेयक के प्रतिबंधों से पूर्णतः मुक्त रखा जाए एवं पिच्छी बनाने के लिए मयूर-पंख के प्रयोग को छूट दी जाए. 

जैनागम के अतिप्राचीन ग्रंथों में पिच्छी का महत्व बताते हुए कहा कि पिच्छी में मृदुता, सुकोमलता, अग्रहणता, तथा लघुता के गुण होते हैं। केन्द्र सरकार द्वारा पारित वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३ में मोर को कष्ट पहुँचाने एवं उसकी हत्या करने पर लगाया गया प्रतिबंध सर्वथा उचित है, परन्तु मोर द्वारा स्वाभाविक रूप से छोड़े गए पंखों पर प्रतिबंध लगाना कैसा न्याय है?

दिगंबर साधु की पहचान मोर पंख की पिच्छी है। पिच्छी मोर द्वारा अपने आप छोड़े गए पंखों से निर्मित की जाती है, मोरपंख को प्राप्त करने हेतु मोर को कोई कष्ट नहीं दिया जाता। दिगंबर साधु इसलिए मोर पंख का उपयोग करते हैं क्योंकि उसमें पाँच गुण हैं: मृदुता, कोमलता, निष्पृहता  अहिंसा और बाधा से रहित। मयूर पंख से निर्मित पिच्छी से दिगंबर मुनि सूक्ष्म और आँखों से दिखाई ना देने वाले जीवों की रक्षा करते हैं, जैनागम में इसे दिगंबर मुनियों के संयम का अनिवार्य उपकरण कहा गया है।  

सरकार द्वारा लाये गए इस अधिनियम से दिगंबर जैन मुनियों के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग जाएगा, अहिंसा के विरुद्ध पारित हुए कानून कभी सफल नहीं हो सकते इसलिए सरकार से अनुग्रह है कि दिगंबरत्व के प्रतीक पिच्छी, कमंडल जो अहिंसा के उपकरण हैं उसकी सुरक्षा के लिए पुनः विचार किया जाए।

संत शिरोमणि दिगंबर जैनाचार्य श्री १०८ विद्यासागरजी महाराज ने केन्द्र सरकार द्वारा पारित अधिनियम पर कहा कि जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के समय से लेकर अब तक जितने भी साधु-साध्वियाँ हुई हैं उन सभी को कमंडल के साथ पिच्छी रखना अनिवार्य है। जैन धर्म के प्राचीनतम ग्रंथ आचार्य श्री वट्टकेर द्वारा रचित मूलाचार एवं आचार्य श्री शिवकोटि रचित भगवती आराधना में भी उल्लेख है कि बिना पिच्छी के साधु सात कदम भी नहीं चल सकते। यह उनके समाधिमरण तक साथ रहती है। 

आचार्यश्री ने कहा कि केन्द्र सरकार का मयूर पिच्छी संबंधी प्रस्ताव दिगंबर जैन धर्म के साधुओं की आवश्यकताओं में बाधक है। सरकार को साधुओं की चर्या को ध्यान में रखते हुए जैन धर्म के हित में सकारात्मक निर्णय लेकर उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। साथ ही देश के राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री को जैन धर्म की अनिवार्यताओं का ध्यान रखते हुए तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए।

मयूर पिच्छी ही क्यों ?

सकल संयम के धारी नवकोटि {समरंभ, समारंभ, आरम्भ, मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना} से सकल पापों के त्यागी, करुणानिधान, ज्ञानध्यान तप में लीन आत्मध्यानी दिगंबर जैन मुनिराज जब आत्मध्यान से बाहर आते हैं तो उन्हें भी २८ मूल गुण रूप शुभ भाव एवं शुभाचार होता है। उसमें  स्वाध्याय, सामायिक, आहार, विहार, निहार, शयनादि रूप प्रवृत्ति भी स्वभाविक रूप से होती ही है।।

अतः यदि ये क्रियाएं विवेक और सावधानी पूर्वक संपन्न नहीं की जावेगी तो इनमें  जीव हिंसा अवश्य ही होती है। संयम मुनिधर्म का प्राण है, अतः मुनिधर्म के पालन हेतु मुनिराज का अभिप्राय, परिणाम एवं प्रवृत्ति ऐसी होती है कि वे एकेंद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत सभी जीवों की द्रव्य व भाव हिंसा में निमित्त भी नहीं बनते। 

अतः जिन प्रवृत्तियों में हिंसा संभव है उनसे स्वयं बचने के लिए आवश्यक है कि उनके संयम का उपकरण [अर्थात पिच्छी] ऐसा होना चाहिए जिससे किसी भी प्रकार से किसी भी जीव की हिंसा नहीं हो अथवा सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की रक्षा हो, उसे कष्ट ना पहुँचे ।

मुनिधर्म के प्ररूपक जैन ग्रन्थ श्री मूलाचार एवं आराधना आदि ग्रंथों में सर्वगुण सम्पन्न एवं सर्व दोष रहित पिच्छी के स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि --"हे मुने! तुम्हारे संयम की रक्षा करने वाला संयम का उपकरण प्रतिलेखन [पिच्छी] है । वह शोधनोपकरण पिच्छिका तुम्हारे पास प्रति समय (अर्थात सदैव) रहना चाहिए।"

दिगंबर जैन मुनि की प्रतिज्ञा सभी जीवों पर दया करना एवं उनकी रक्षा करना है, इसलिए पिच्छी उसकी पहचान है यह मनुष्यों और पशु-पक्षियों को भी  विश्वास दिलाती है कि जो दिगंबर मुनिराज सूक्ष्म जीवों की रक्षा के लिए इतने सजग एवं करुणावान हैं वे अन्य जीवों के प्रति भी उतने की करुणामय होते हैं। 

जिसमें निम्नलिखित पांच गुण पाए जाएँ वही प्रतिलेखन प्रशंसनीय माना जाता है:
१-     रजो-अग्रहण (धूल को ग्रहण ना करना);
२-     स्वेद-अग्रहण (पसीने को ग्रहण ना करना);
३-     मृदुता (कोमलता);
४-     सुकुमारता (सुंदरता);
५-     लघुता (कम भार)।

रजो-अग्रहण गुण   :-
मुनिराज के ज्ञान का उपकरण शास्त्र है उन्हें सुरक्षित रखने के लिए अलमारी, अछावर आदि साधन परिग्रह होने से मुनिराज उन्हें नहीं रखते अतः शास्त्र खुले स्थान में उच्च स्थान में रखे रहते हैं जिससे उनपर धूल आदि चढ़ जाती है और साथ ही सूक्ष्म जीव भी उसमें छिप जाते हैं या चिपक जाते हैं। अतः स्वध्याय हेतु मुनिराज जब भी शास्त्र का उपयोग करते हैं तो नेत्रों से भली-भांति देखकर एवं पिच्छी से सावधानी से परिमार्जन करते हैं । 

जिस स्थान या बसतिका में निवास करते हैं तथा जिस काष्ठासन आदि पर बैठते हैं वे भी खुले स्थान में होते हैं, उन पर भी सूक्ष्म तथा स्थूल जीव चढ़ जाते हैं अतः उन पर बैठने, उठने, शयन करने में, हाथ पैर फैलाने, सुकोड़ने, करवट आदि बदलने के पहले उन स्थानों, आसनों एवं शरीर को पिच्छी से परिमार्जित अर्थात साफ़ करते हैं।

दिगंबर जैन मुनि जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के बाद से आजीवन पग-विहार ही करते हैं, किसी भी प्रकार का वाहन कभी भी नहीं करते, वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर पैदल विहार में गमनादि करते समय चार हाथ आगे की भूमि देखकर मध्यम गति से तो गमन करते ही हैं परन्तु जिस भूमि पर गमन करते हैं, उस भूमि की मिट्टी के कण मुनिराज के शरीर पर लग जाते हैं, साथ में एक तरह की मिट्टी में जो सूक्ष्म जीव रहते हैं वे जीव दूसरी तरह की मिट्टी  में जीवित नहीं रह पाते हैं।अतः जब मुनिराज विहार करते हुए एक तरह की मिट्टी वाली भूमि से दूसरी तरह की मिट्टी  वाली भूमि में गमन के पूर्व वहीं खड़े होकर शरीर का पिच्छी से परिमार्जन करते हैं ।

इसी प्रकार छाया से धूप में तथा धूप से छाया वाले छेत्र में विहार के पूर्व ही खड़े होकर शरीर  का परिमार्जन करते हैं। यदि ऐसा न करेंगे तो धूप के जंतु छाया के संसर्ग से तथा छाया के जंतु धूप के संसर्ग से मर जाएँगे और इस अविवेक का दोष मुनिराज को लगेगा तो ईर्या समिति निर्दोष नहीं पल पायेगी।

जिस प्रकार शास्त्र, आसन, बस्तिका की धूल का परिमार्जन करते हैं वैसे ही शौच का उपकरण कमंडलु है उस पर भी धूल आदि चढ़ जाती है अतः उसे भी उपयोग करने के पूर्व उसका परिमार्जन करते जिससे आदान-निक्षेपण समिति भली – भांति पल जाती है।

मुनिराज जिस स्थान पर मल-मूत्र-थूक आदि क्षेपण करते हैं वह स्थान प्रासुक, शुष्क एवं जीव जंतुओं से रहित होना चाहिए, फिर भी नेत्रों से भली-भांति देखने पर भी धूल आदि में सूक्ष्म जीवों की सम्भावना हो सकती है अतः उक्त कार्य करने के पूर्व उस स्थान का पिच्छी से परिमार्जन करते हैं अतः प्रतिष्ठापन समिति निर्दोष पल जाती है। 

उपर्युक्त सभी क्रियाओं अथवा गतिविधियों को करने में धूल आदि का जिस पिच्छी से परिमार्जन  किया जा रहा है उसमें  ऐसा गुण होना चाहिए कि वह धूल से मैली नहीं होना चाहिए, यदि धूल से मैली होने वाली हो तो उसमें जीवों की उत्पत्ति होने लगेगी और वह हिंसा का आयतन बन जाएगी । ऐसा होने पर अहिंसा महाव्रत खंडित हो जाने से मुनि धर्म ही नष्ट हो जायेगा, परन्तु  मयूर पिच्छी ऐसी होती है कि उससे कितनी भी धूल का परिमार्जन किया जाये वह किंचित मात्र भी मैली नहीं होती अतः रजो अग्रहण गुण की धारक मयूर पिच्छिका ही होती है । 

स्वेद अग्रहण गुण :-  
एक स्थान से दूसरे स्थान की और पैदल विहार करते समय मुनिराज के शरीर से पसीना आना तथा उस पर धूल आदि लग जाना स्वाभाविक ही है, अतः मुनिराज जब धूप से छाया में और छाया से धूप में गमन करते हैं तो पिच्छी से शरीर का परिमार्जन करते हैं, ताकि धूप तथा छाया के सूक्ष्म जीव जो शरीर पर लग गए वे अन्यत्र वातावरण में पहुंचकर मर ना जाएँ, अतः पसीना के परिमार्जन से पिच्छी गीली न हो, ऐसा गुण पिच्छी में होना चाहिए, यदि पसीने से पिच्छी गीली हो जाए तो उसमें धूल आदि के संपर्क में आने से सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाएगी तब फिर वही पिच्छी हिंसा का आयतन बन जाने से अहिंसा महाव्रत के पालन के सर्वथा अयोग्य हो जाएगी । तब  फिर पुनः पुनः नवीन पिच्छी की आवश्यकता पड़ेगी और सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी मुनिराज के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकेगी, अतः महाव्रत खंडित होने से मुनि धर्म नष्ट हो जाएगा ।

परन्तु मयूरपंख से बनी पिच्छी में ऐसा गुण है कि पसीने से वह बिलकुल गीली नहीं होती तथा धूल आदि को भी ग्रहण नहीं करती। अतः पुनः -पुनः धूल एवं पसीने का परिमार्जन करने पर भी उसमें जीवों की उत्पत्ति नहीं होती, अतः अहिंसा महाव्रत सहज ही पल जाता है। अतः स्वेद अग्रहण स्वभाव वाली होने से मयूर पिच्छी ही मुनि धर्म पालन में सहायक है।

मृदुता गुण :-  
एक -दो इन्द्रिय आदि जीवों का शरीर  इतना सुकोमल होता है कि यदि किसी कठोर पिच्छी से परिमार्जन  किया जायेगा तो उनका मरण हो जाने से अहिंसा महाव्रत नष्ट हो जायेगा , अतः पिच्छी ऐसी   होनी चाहिए कि सुकोमल तथा सूक्छ्म अवगाहना वाले जीवों को भी परिमार्जन  के काल में कोई कष्ट न हो और न ही उनकी द्रव्य या भाव प्राणों कि हिंसा हो ।
मयूर पिच्छी इतनी कोमल होती है कि कि उसका अग्र भाग आँख में चले जाने पर भी आँख को कोई कष्ट नहीं होता, अतः मृदुता अर्थात कोमलता गुण कि धारी मयूर पिच्छी ही सर्व प्रकार के सर्व जीवों को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचाने में समर्थ होने से अहिंसा महाव्रत के पालन के लिए सर्वदा एवं सर्वत्र उपयुक्त है तथा उपादेय है । 

सुकुमारता /प्रियदर्शनीयता गुण:-
उपरोक्त गुणों के साथ पिच्छी में नेत्रों को मनोहर लगने वाला प्रियदर्शनीय गुण भी आवश्यक है । क्योंकि जो श्रावक भक्त आदि उनके निकट आते हैं उन्हें यह संयम का उपकरण प्रिय लगे और भोले जीव भी उससे आकर्षित होकर मुनिराज के निकट आवे यह गुण मयूर पिच्छी में स्वभावतः ही है। 

लघुता गुण :- 
मुनिराज को अपनी प्रत्येक क्रिया के समय पिच्छी की आवश्यकता होती है अतः मुनि दीक्षा अंगीकार करते समय से ही पिच्छी को जीवन पर्यंत साथ रखना अनिवार्य होता है। इसके लिए आवश्यक है कि पिच्छी इतनी हल्की होनी चाहिए कि उसे बाल, वृद्ध, रोगी, क्लांत, समाधि साधक, जीर्ण शरीर एवं बल वाले सभी मुनिराज आसानी से उसे उठाकर अपना परिमार्जन कार्य कर सकें। साथ ही यदि पिच्छी के नीचे कोई जीव दब जावे तो उसके वजन से उसको कोई कष्ट न हो, इस दृष्टि से भी देखा जाए तो मयूर पिच्छी इतनी हल्की होती है कि जिससे सूक्ष्म जंतु के शरीर को भी किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचती तथा अत्यंत वृद्ध एवं अशक्त मुनिराज को भी उसे उठाने में कष्ट नहीं होता तथा उनके शरीर का परिमार्जन करने पर भी उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।

इस प्रकार प्रतिलेखन अर्थात पिच्छी के सम्पूर्ण गुण जैसे रजोअग्रहण, स्वेदअग्रहण, मृदुता [कोमलता], प्रियदर्शनीयता और लघुता गुण से परिपूर्ण मात्र मयूरपंख से निर्मित पिच्छी ही होती है, जिसके द्वारा जीव हिंसा किसी भी प्रकार नहीं होती अतः महाव्रतों के धारी मुनिराज के संयम धर्म के पालन में यही मयूर पिच्छी अनिवार्य है। 

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए एवं दिगंबर मुनियों की सहस्राब्दियों पुरातन परम्परा का ध्यान रखते हुए हम समिति से विनम्र अनुरोध करते हैं कि दिगंबर मुनियों द्वारा प्रयोग की जाने वाली पिच्छिका बनाने के मयूरपंख के इस्तेमाल को वन्य जीव संरक्षण संशोधन अधिनियम २०१३ के प्रावधानों से मुक्त रखा जाए ताकि विश्व के सर्वाधिक प्राचीनतम जैन धर्म की दिगम्बर मुनि परंपरा अक्षुण्ण बनी रहे।

हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि भारत सरकार दिगम्बर मुनियों के प्रति सम्मान भाव रखते हुए पिच्छी निर्माण के लिए मयूरपंख के उपयोग को प्रतिबंधों से अलग रखेगी और उक्त अधिनियम को अधिसूचित करने से पहले आवश्यक संशोधन किया जाएगा ।

धन्यवाद सहित,


भवनिष्ठ,

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Friday, July 19, 2013

Shyam Rudra Pathak

Scholar alleges harassment
NEW DELHI, July 5 (UNI) — An outstanding research scholar has complained to the National Human Rights Commission (NHRC) alleging harassment and victimisation by the authorities of the National Centre for Radio Astrophysics (NCRA), Pune, for his crusade against corruption in the institute.
According to the complaint to the NHRC, the scientist, Mr Shyam Rudra Pathak, was facing complete ruination of his career and personality because of the continuous persecution and victimisation by the authorities of the NCRA.
Mr Pathak, an M.S. (physics) and M. Tech from the IIT Delhi, had topped the list of successful candidates in the written examination of the research scholars’ selection test of the prestigious Tata Institute of Fundamental Research (TIFR), in 1993, conducted jointly by the NCRA and the Inter University Centre for Astronomy and Astrophysics.
The complaint stated that a few months after successfully completing the course work for one semester in the TIFR Mr Pathak was transferred to the NCRA, which was a branch of the TIFR, on August 19, 1991.
Although he was called to join the course work in the NCRA after a delay of about two weeks from the beginning of the graduate programme, his performance was better than all other research scholars of his batch.
However, after completing his graduate programme, Mr Pathak was terminated in a highly arbitrary and oppressive manner without any reason. Though the termination was later revoked, he had to waste two years because of this arbitrary decision of the NCRA.
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But this was not the end of his victimisation. He got registered for Ph.D in Pune University on January 18, 1995, following the withdrawal of his termination order. But before he could complete his research work Mr Pathak was again informed that his fellowship in the NCRA, Pune was withdrawn with effect from July 31, 1997.
The complaint stated that like the previous occasion, this time Mr Pathak was not given any formal termination order, but his research facilities were withdrawn and he was told to go away from the institute.
Generally the research scholars who finished their Ph.D in the NCRA are given fellowship for about six years or more for the research work, but he got less than three years because of his “tyrannical termination” earlier.
Mr Pathak wrote to the authorities that he would not cooperate with their order and continued to go to his office room.
However, on January 19, 1998, he was stopped from entering his office room. But he did not go back and started “satyagraha” there itself to express his non-cooperation with the “unjust order”. But the next day he was taken away by the police.
Following this his wife, Dr Manju Pathak, was beaten grievously and insulted and taken to the police station. The couple were later sent to the police lock-up, where they had to face the insulting behaviour and abusive language of the police, the complaint stated. 
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The brilliant scholar, who had topped the list of the GATE-1985 examination with a score of 99.89 per cent and awarded junior fellowship of the CSIR and senior fellowship of the IIT, Delhi earlier, was handcuffed while being taken from the lock-up to the court.
The complaint stated that while the couple were in the lock-up, their three children aged 10, 7 and 4 were shifted from their hostel room and all their belongings taken away from the room by the institute authorities.
When the couple were freed on the night of January 21, 1998, after a court order, they were not allowed to enter the NCRA campus by the security guards. Even their three children, who were shifted to another room of the hostel, were brought from the hostel uo to the campus gate and were handed over to them by the security guards.
They were not given any money or personal belongings even though he talked to the Dean and the Director of the centre about it on phone from outside the campus. Since then, they were forced to live a life of extreme deprivation.
Although Mr Pathak and his wife wrote to the Director, TIFR and the chairman of the TIFR Council of Management and from March 10 to 12, 1998, his wife sat on a dharna in front of the TIFR campus. There was no response from the authorities.
The complainant also wrote a letter to the Prime Minister on April 13 this year, but no action was taken. Ultimately, he approached the NHRC.

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