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30 Nov, 10 21:56
२९ नवम्बर, २०१० को प्रातः मनोहर ग्राम के पास एक ओर सडक दुर्घटना में अचल गच्छ के आचार्य श्री गुनोदयसूरीजी के समुदाय की चार साध्वियां दुर्घटनाग्रस्त हुई और उनमें से दो की घटनास्थल पर जीवनलीला समाप्त हो गयी और दो साध्वियां जीवन से संघर्श कर रही है। यह कोई पहली घटना नहीं है और कोई सहज घटित दुर्घटना भी नहीं है, आखिर क्यों अहिंसा को अपना जीवन आदर्ष मानने वाले इन अकिंचन एवं परिव्राजक पदयात्री जैन मुनियों को सडक दुर्घटनाओं में अपना जीवन समाप्त करने के लिये विवष होना पड रहा है।
क्या यह यातायात व्यवस्था का विद्रूप एवं हिंसक होता स्वरूप है या फिर किसी वर्ग विषेश का शडयंत्र? ज्यों भी कारण रहे हों इन दुर्घटनाओं के, समाधान की अपेक्षा जरूरी है। भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों, दर्शनों में पदयात्रा का विशिष्ट महत्व है। जैन परम्परा में यह साधुचर्या का अनिवार्य अंग है। आज के सुविधावादी युग में हजारों हजार जैन मुनि हर साल लाखों किलोमीटर की पदयात्राएं करके धर्म, अहिंसा, सदाचार, समता, समन्वय, शांति और सौहार्द का संदेश जन-जन के बीच पहुंचाते हैं।
सदियों से चली आ रही पदयात्रा की यह परम्परा न केवल भारत में बल्कि समुची दुनिया में आदरसूचक रही है। लेकिन विगत कुछ समय से जैन मुनियों की इन पदयात्राओं पर असुरक्षा और हिंसा के बादल मंडरा रहे हैं। अनेक ऐसी घटनाएं दो वर्षों में घटित हुई हैं जिनमें अनेक जैन आचार्य, मुनि और साध्वियां दुर्घटनाग्रस्त होकर काल-कवलित हो गई हैं। सदियों से चली आ रही पदयात्रा की इस आदर्श परम्परा में इस तरह की घटनाओं का बहुतायत में होना न केवल चिंता का विषय है बल्कि शर्मनाक, लज्जाजनक भी है। एकाएक पदयात्राओं के दौरान इन दुर्घटनाओं का होना क्या षडयंत्र है या फिर यातायात व्यवस्था का लडखडाना? जो भी स्थिति हो पदयात्राओं के दौरान जैन मुनियों की सुरक्षा सरकार की प्रथम प्राथमिकता होनी चाहिए।
आश्चर्य का विषय है कि बडी संख्या में घटित इन दुर्घटनाओं और उनमें अनेक शीर्षस्थ आचार्यों, मुनियों, साध्वियों के दुर्घटनाग्रस्त होकर जीवन समाप्त हो जाने की घटनाओं के बावजूद चहुं ओर सन्नाटा पसरा रहा। न सरकार हलचल में आई, न जैन समाज के शीर्षस्थ संगठनों ने कोई ठोस कार्रवाई की। क्या जैन समाज की सहिष्णुता, अहिंसा, समता को कमजोर कर आंका जा रहा है। क्या इस तरह की घटनाएं किन्हीं मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी आदि धर्मगुरुओं के साथ घटित होती तो भी इसी तरह की सरकारी उपेक्षा और उदासीनता देखने को मिलती?
यहां प्रश्न किसी के साथ तुलना का नहीं बल्कि भारत की एक आदर्श और गौरवपूर्ण संस्कृति पर अनायास मंडरा रहे खतरों पर नियंत्रण का है। विकास की उपलब्धियों से हम ताकतवर बन सकते हैं, महान नहीं। महान उस दिन बनेंगे जिस दिन किसी निर्दोष पदयात्री मुनि का खून सडक को लाल नहीं करेगा।
हाल ही में घटित घटना के अलावा जब राजस्थान के बायतू (बालोतरा) के पास जीप की टक्कर से आचार्य जम्बूविजयजी एवं नमस्कार मुनिजी घटनास्थल पर ही देह से विदेह हो गए या इसी घटना के आसपास गुजरात के मेहसाना के पास चार साध्वियां सडक दुर्घटनाएं में काल-कवलित हो गए। वर्ष २००९ की इन घटनाओं के परिपार्श्व में और भी ऐसी अन्य घटनाएं घटी जिन्होंने संपूर्ण जैन समाज को न केवल आहत किया बल्कि सरकार की उदासीनता के प्रति आक्रोश भी पनपाया। उन्हीं दिनों सुखी परिवार अभियान के प्रणेता गणि राजेन्द्र विजयजी दिल्ली में इन घटनाओं को लेकर सरकार और राजनीतिक दलों के अनेक शीर्षस्थ व्यक्तियों से मिलें। उसके बाद भी वे निरंतर इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए प्रयासरत रहे। लेकिन इस सबके बावजूद सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। जैन मुनियों की पदयात्रा की परम्परा अक्षुण्ण रहे और उन पर मंडरा रहे असुरक्षा के खतरों से निजात मिल सक इसके लिए सरकार को ठोस कदम उठाने ही चाहिए।
चाहे कोई दिगम्बर हो या श्वेताम्बर एक ही संस्कृति की दो महान शाखाएं हैं। पंथ, सम्प्रदाय, गच्छ या संगठन बाह्य पहचान है, अंतरंग व्यक्तित्व तो है जैनत्व की संस्कृति, जिसके पहरूए हैं- अहिंसा, अभय, अनेकांत, अपरिग्रह और अनाग्रह। इसकी सबसे बडी पहचान है त्याग और तपस्यापूर्ण जीवनशैली, जिसका सबसे सशक्त माध्यम है पदयात्रा। इसी पदयात्रा के कारण न केवल जैन बल्कि जैनेत्तर लोग भी जैन मुनियों को आदर देते हैं। यह पदयात्रा यदि इन मुनियों की जीवन लीला समाप्ति की माध्यम बनती है तो निश्चित ही एक चिंतनीय मुद्दा है। समय रहते इस ज्वलंत समस्या का समाधान होना नितांत जरूरी है। जैन मुनियों की पदयात्रा समूची दुनिया के लिए अनुकरणीय रही है जिसका लम्बा एवं समृद्ध इतिहास रहा है। महात्मा गांधी ने इसी से प्रेरणा लेकर लंबी-लंबी पदयात्राएं की, वर्ष १९३० में डांडी यात्रा की और जन-जन को आजादी के लिए तैयार किया।
चार-पांच दशक पूर्व दक्षिण बिहार और आंध्रप्रदेश में नक्सली हिंसा का दौर बढा तो शांतिदूत आचार्य विनोबा भावे ने भूदान पदयात्रा, शांतियात्रा का मिशन बनाकर समूचे भारत की पदयात्राएं की। डॉ. नाटोविच ने ईसामसीह की जीवन में लिखा है कि ईसा जब चौदह वर्ष के थे तो सौदागरों के एक दल के साथ भारत (सिंध) आए और उन्होंने लगातार छह वर्षों तक भारत की पदयात्रा की। इसी दौरान जैनों की क्षमा और दया, बौद्धों का अक्रोध और करुणा इन विचारों का ईसा मसीह के जीवन पर गहरा प्रभाव पडा। बुद्ध के साथ-साथ जैन तीर्थंकरों ने पदयात्रा के माध्यम से ही परोपकार और जनकल्याण के कार्य किए। उनका उद्घोष होता- विहार चरिया इसिणं पसत्था-ऋषि महर्षियों के लिए विहार करना, चलते रहना ही श्रेष्ठ है। गामाणुगामं दूइज्जमाणे-एक गांव से दूसरे गांव, एक नगर से दूसरे नगर नदी की तरह बहते रहना, चलते रहना यही उनका व्रत-संकल्प होता है। उनका घोष होता है चरैवेति चरैवेति-चलते रहो, चलते रहो। तथागत बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा-चरथ भिक्खवे चारिकां, लोकहिताय, लोककल्याणाय च। भिक्षुओं! संसार के हित और कल्याण के लिए चलते रहो, चलते रहो। संपूर्ण रामायण का सार भी भगवान राम की पदयात्राओं में ही समाहित है। आज आधुनिक संदर्भ में चाहे राजनीतिक दल हो, या सामाजिक संगठन हो जन-जन को आकर्षित करने या उन्हें उद्बोध देने के लिए पदयात्रा का माध्यम ही चुनते हैं। उनकी यात्राओं के लिए सरकार समुचित सुरक्षा प्रबंध करती है, फिर जैन मुनियों की पदयात्राओं की सुरक्षा व्यवस्था क्यों नहीं? जैन मुनियों की पदयात्रा तो इतनी कष्टदायी और पीडादायी होती हैं कि उसके समक्ष जन-जन का मस्तक सहज ही झुक जाता है।
फिर ये पदयात्राएं तो निस्वार्थ होती है जन-जन के उत्थान के लिए होती है। आखिर इन पर जो संकट के बादल मंडराने लगे हैं उनकी मुक्ति और सुरक्षा की व्यवस्था पर क्यों नहीं ध्यान दिया जा रहा है। हम चाहते हैं कि गणि राजेन्द्र विजयजी के स्वर में स्वर मिलाते हुए समूचा जैन समाज और मानवीय समाज संकट की इन घडयों में संवेदनशीलता, सौहार्द और मानवीयता की दृष्टि से इस ज्वलंत समस्या पर जागरूक बने, शंखनाद करे और भारतीय संस्कृति के आदर्श को धुंधलाने से बचाए।
Source : - ललित गर्ग
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